ये सब हैं चाहने वाले!और आप?

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Friday, January 27, 2012

Please! इसे कोई न पढे! चुनाव सर पर हैं!


थाली के बैगंन,
लौटे,
खाली हाथ,भानुमती के घर से,


बिन पैंदी के लोटे से मिलकर,


वहां ईंट के साथ रोडे भी थे,


और था एक पत्थर भी,


वो भी रास्ते का,


सब बोले अक्ल पर पत्थर पडे थे,


जो गये मिलने,पत्थर के सनम से,

वैसे भानुमती की भैंस,
अक्ल से थोडी बडी थी,
और बीन बजाने पर,
पगुराने के बजाय,
गुर्राती थी,
क्यों न करती ऐसा?
उसका चारा जो खा लिया गया था,

बैगन के पास दूसरा कोई चारा था भी नहीं,
वैसे तो दूसरी भैंस भी नहीं थी!
लेकिन करे क्या वो बेचारा,
लगा हुया है,तलाश में
भैंस मिल जाये या चारा,
बेचारा!


बीन सुन कर 
नागनाथ और सांपनाथ दोनो प्रकट हुये!
उनको दूध पिलाने पर भी,
उगला सिर्फ़ ज़हर,
पर अच्छा हुआ के वो आस्तीन में घुस गये,
किसकी? आज तक पता नहीं!
क्यों कि बदलते रहते है वो आस्तीन,
मौका पाते ही!
आयाराम गयाराम की तरह।

भानुमती के पडोसी भी कमाल के,
जब तब पत्थर फ़ेकने के शौकीन,
जब कि उनके अपने घर हैं शीशे के!



सारे किरदार सच्चे है,
और मिल जायेंगे
किसी भी राजनीतिक समागम में
प्रतिबिम्ब में नहीं, 
नितांत यर्थाथ में।

Monday, January 23, 2012

उसका सच! एक बार फ़िर!


मुझे लग रहा है,पिछले कई दिनों से ,
या शायद, कई सालों से,

कोई है, जो मेरे बारे में सोचता रहता है,

हर दम,

अगर ऐसा न होता ,
तो कौन है जो, मेरे गिलास को शाम होते ही,
शराब से भर देता है।

भगवान?

मगर, वो ना तो पीता है,
और ना पीने वालों को पसंद करता है ,
ऐसा लोग कह्ते हैं,

पर कोई तो है वो !


कौन है वो, जो,
प्रथम आलिगंन से होने वाली अनुभुति 
से मुझे अवगत करा गया था।

मेरे पिता ने तो कभी इस बारे में मुझसे बात ही नहीं की,

पर कोई तो है, वो!

कौन है वो ,जो 
मेरी रोटी के निवाले में,
ऐसा रस भर देता है,
कि दुनियां की कोई भी नियामत,
मुझे वो स्वाद नहीं दे सकती।
पर मैं तो रोटी बनाना जानता ही नही

कोई तो है ,वो!

कौन है वो ,जो,
उन तमाम फ़ूलों के रगं और गंध को ,
बदल देता है,
कोमल ,अहसासों और भावनाओं में।

मेरे माली को तो साहित्य क्या, ठीक से हिन्दी भी नहीं आती।

कोई तो है ,वो,

वो जो भी है,
मैं जानता हूं, कि,
एक दिन मैं ,
जा कर मिलु्गां उससे,
और वो ,हैरान हो कर पूछेगा,


क्या हम, पहले भी ,कभी मिलें हैं?




Tuesday, September 7, 2010

कहकशां यानि आकाशगंगा!

ऐ खुदा,

हर ज़मीं को एक आस्मां देता क्यूं है?
उम्मीद को फ़िर से परवाज़ की ज़ेहमत!  
नाउम्मीदी की आखिरी मन्ज़िल है वो।

हर आस्मां को कहकशां देता क्यूं है?
आशियानों के लिये क्या ज़मीं कम है?
आकाशगंगा के पार से ही तो लिखी जाती है, 
कभी न बदलने वाली किस्मतें!

दर्द को तू ज़ुबां देता क्यूं है?
कितना आसान है खामोशी से उसे बर्दाश्त करना,
अनकहे किस्सों को बयां देता क्यूं है?
किस्से गम-ओ- रुसवाई का सबब होते है|



क्या ज़रूरत है,
तेरे इस तमाम ताम झाम की?


ज़िन्दगी! 


बच्चे की मुस्कान की तरह


बेसबब!!


और
दिलनशीं! 


भी तो हो सकती थी!

Sunday, July 18, 2010

इंतेहा-ए-दर्द!



दर्द को मैं ,अब दवा देने चला हूं,
खुद को ही मैं बद्दुआ देने चला हूं!

बेवफ़ा को फ़ूल चुभने से लगे थे,
ताज कांटो का उसे देने चला हूं!

मर गया हूं ये यकीं तुमको नहीं है, 
खुदकी मय्यत को कांधा देने चला हूं!

Friday, May 21, 2010

इसे कोई न पढे!

थाली के बैगंन,
लौटे,
खाली हाथ,भानुमती के घर से,
बिन पैंदी के लोटे से मिलकर,
वहां ईंट के साथ रोडे भी थे,
और था एक पत्थर भी,
वो भी रास्ते का,
सब बोले अक्ल पर पत्थर पडे थे,
जो गये मिलने,पत्थर के सनम से,

वैसे भानुमती की भैंस,
अक्ल से थोडी बडी थी,
और बीन बजाने पर,
पगुराने के बजाय,
गुर्राती थी,
क्यों न करती ऐसा?
उसका चारा जो खा लिया गया था,

बैगन के पास दूसरा कोई चारा था भी नहीं,
वैसे तो दूसरी भैंस भी नहीं थी!
लेकिन करे क्या वो बेचारा,
लगा हुया है,तलाश में
भैंस मिल जाये या चारा,
बेचारा!


बीन सुन कर 
नागनाथ और सांपनाथ दोनो प्रकट हुये!
उनको दूध पिलाने पर भी,
उगला सिर्फ़ ज़हर,
पर अच्छा हुआ के वो आस्तीन में घुस गये,
किसकी? आज तक पता नहीं!
क्यों कि बदलते रहते है वो आस्तीन,
मौका पाते ही!
आयाराम गयाराम की तरह।

भानुमती के पडोसी भी कमाल के,
जब तब पत्थर फ़ेकने के शौकीन,
जब कि उनके अपने घर हैं शीशे के!



सारे किरदार सच्चे है,
और मिल जायेंगे
किसी भी राजनीतिक समागम में
प्रतिबिम्ब में नहीं, 
नितांत यर्थाथ में।

Friday, May 7, 2010

प्राइस टैग!

अच्छा लगता है,
टूट कर,
बिखर जाना,
बशर्ते,
कोई तो हो
जो,


सहम कर,
हर टुकडा
उठा कर
दामन में रख ले.
कीमती समझ कर!


पर,




अकसर देखा है,
घरों में,
कीमती और नाज़ुक
चीज़ों पे
प्राइस टैग नहीं होते.!


और लोग खामोश गुजर जाते हैं,
चीजों के किरच -किरच हो कर बिखर जाने पर भी!







Tuesday, May 4, 2010

आप ही कहो,क्या सच है?

औरतें भी इन्सान जैसी हो गईं है,
माँ थीं वो, हैवान जैसी हो गईं हैं!

निरुपमा ने ये शायद  सोचा नहीं था,
आधुनिकता परिधान जैसी हो गई है।

माधुरी को भी ये कब पता था,
अय्यारी ईमान जैसी हो गई है।

खिलखाती खेलती थी बेटी मेरी,
खबरें सुन कर,हैरान जैसी हो गई है। 

Saturday, May 1, 2010

गद्दारी, सच में!

पैसे को हमने इस तरह भगवान कर दिया,
मक्कारी को इंसान ने ईमान कर लिया।

हमने तो उनको हाकिम का दर्ज़ा अता किया,
इज़्ज़त को सबकी,उसने पावदान कर लिया।


मिट्टी में देश की क्या अब खुशबू नहीं बची,
चंद हरकतो ने इसको नाबदान कर दिया।

यकीनन सदा से ही औरत, तस्वीरे वफ़ा है 
एक गद्दार ने इस यकीं को बदनाम कर दिया।

Friday, April 2, 2010

कडवी कडवी !!!

लहू अब अश्क में बहने लगा है,
नफ़रतें ख़्वाब  में आने लगीं हैं,

मरुस्थल से जिसे  घर में जगह दी
नागफ़नी फ़ूलों को खाने लगीं हैं, 

हमारी फ़ितरत का ही असर है,
चांदनी भी तन को जलाने लगी है

चलो अब चांद तारो को भी बिगाडें  
ऋतुयें धरती से मूंह चुराने लगीं है.

बात कडवी है तो कडवी ही लगेगी,
सच्ची बातें किसको सुहानी लगीं है. 



Monday, March 22, 2010

तलाश खुद अपनी!



इन्तेहा-ए-उम्मीदे-वफ़ा क्या खूब!
जागी आंखों ने सपने सजा लिये।


मौत की बेरुखी, सज़र-ए-इन्सानियत में,
अधमरे लोग हैं,गिद्दों ने पर फ़ैला लिये।


चाहा था दुश्मन को दें पैगाम-ए-अमन
दोस्तों ने ही अपने खंजर पैना लिये।


भीड में कैसे मिलूंगा, तुमको मैं?
ढूंडते हो खुद को ही,तुम आईना लिये!

Sunday, February 14, 2010

सच और सियासत!



कुछ लफ़्ज़ मेरे इतने असरदार हो गय्रे,
चेहरे तमाम लोगो के अखबार हो गये.

मक्कारी का ज़माने में  ऐसा चलन हुया,
चमचे तमाम शहर की सरकार हो गये.

यूं ’कडवे सच’ से ज़िन्दगी में रूबरू हुये,
रिश्ते तमाम तब से बस किरदार हो गये.

चंद दोस्तों ने वफ़ा की ऐसी मिसाल दी,
कि दुश्मनों के पैतरे बेकार हो गये.


Wednesday, February 3, 2010

इकबाले ज़ुर्म!

जब मै आता हूं कहने पे,तो सब छोड के कह देता हूं,
सच न कहने की कसम है पर तोड के कह देता हूं,

दिल है पत्थर का पिघल जाये मेरी बात से तो ठीक,
मै भी पक्का हूं इबादत का,सनम तोड के कह देता हूं.

मै तो सच कहता हूं तारीफ़-ओ-खुशामत मेरी कौन करे,
सच अगर बात हो तो सारे भरम तोड के कह देता हूं.

भरोसा उठ गया है सारे मुन्सिफ़-ओ-वकीलो  से,
मै सज़ायाफ़्ता हूं ये बात कलम तोड के कह देता हूं. 

वो होगें और ’इल्म के सौदागर’ जो डरते है रुसवाई से,
मै ज़ूनूनी हूं ज़माने के  चलन तोड के कह देता हूं.



Wednesday, December 2, 2009

तीरगी का सच!

Little late for anniversary of 26/11 notwithstanding रचना आप के सामने hai :

इस तीरगी और दर्द से, कैसे लड़ेंगे हम,
 मौला तू ,रास्ता दिखा अपने ज़माल से.


मासूम लफ्ज़ कैसे, मसर्रत अता करें,
जब भेड़िया पुकारे मेमने की खाल से.


चारागर हालात मेरे, अच्छे बता गया,
कुछ नये ज़ख़्म मिले हैं मुझे गुज़रे साल से.


लिखता नही हूँ शेर मैं, अब इस ख़याल से,
किसको है वास्ता यहाँ, अब मेरे हाल से. 


और ये दो शेर ज़रा मुक़्तलिफ रंग के:



ऐसा नहीं के मुझको तेरी याद ही ना हो,
 पर बेरूख़ी सी होती है,अब तेरे ख़याल से.


दो अश्क़ उसके पोंछ के क्या हासिल हुया मुझे?
खुश्बू नही गयी है,अब तक़ रूमाल से.





Monday, May 18, 2009

दर्द की मिकदार को तौल कर देखें


मौला, ना कर मेरी हर मुराद तू पूरी,
जहाँ से दर्द की मिक़दार क़म हो, ये करना होगा.

मसीहा कौन है ,और कौन यहाँ रह्बर है,
हर इंसान को इस राह पे, अकेले ही चलना होगा.

तेज़ हवाएँ भी हैं सर्द ,और अंधेरा भी घना,
शमा चाहे के नही उसे हर हाल में जलना होगा.

Tuesday, May 12, 2009

झूंठ के पावों के निशान!



वो देखो दौड़ के मंज़िल पे जा पहुँचा,
कौन कहता है के,'झूंठ के पावं' नही होते.

मैं चीख चीख के सब को बताता रह गया,
फिर ना कहना,'दीवारों के भी कान' होते हैं.

सारे हाक़िम लपक कर उसके पावं छू आए,
तब मैं जान गया,'क़ानून के हाथ' लंबे हैं.

Sunday, April 26, 2009

एक बार फिर से पढें!

हाथ में इबारतें,लकीरें थीं, 
सावांरीं मेहनत से तो वो तकदीरें थी।
  
जानिबे मंज़िल-ए-झूंठ ,मुझे भी जाना था, 
पाँव में सच की मगर जंज़ीरें थीं।
 
मैं तो समझा था फूल ,बरसेंगे, 
उनके हाथों में मगर शमशीरें थीं। 
 
खुदा समझ के रहेज़दे में ताउम्र जिनके, 
गौर से देखा तो , वो झूंठ की ताबीरे॑ थीं। 
 
पिरोया दर्द के धागे से तमाम लफ़्ज़ों को, 
मेरी ग़ज़लें मेरे ज़ख़्मों की तहरीरें थीं।